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Showing posts from April, 2021

हमारा बचपन

*हमारा बचपन🌹🌹* हमारे जमाने में साइकिल तीन चरणों में सीखी जाती थी। पहला चरण - कैंची दूसरा चरण - डंडा तीसरा चरण - गद्दी ... तब साइकिल चलाना इतना आसान नहीं था क्योंकि तब घर में साइकिल बस पापा या चाचा चलाया करते थे. तब साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था। "कैंची" वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे। और जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और "क्लींङ क्लींङ" करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी लोग बाग़ देख सकें की लड़का साईकिल दौड़ा रहा है। आज की पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नही पता की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना "जहाज" उड़ाने जैसा होता था। हमने ना जाने कितने दफे अपने *घुटने और मुंह तोड़वाए है* और गज़ब की बात ये है कि *तब दर्द भी नही होता था, गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछत...

जीना इसी का नाम

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थी उनकी आगमन से मन असमानो में मेरा नजरांदाज ही काफी रहा अनकही संकेतो का रहा इंतजार एक अरसे से जिनके आने की फिर कोई मोल ना मिल सका इस इंतजार का एक आश लेकर ठहरे रहे, चंद गुफ्तगू की निकली है पास से कोई खबर भी ना रहा आने का चीखती रही लम्हों से अल्फाज मेरे नजर के लिए परदेशी है शायद उन्हें इल्म ही ना रहा हमारे होने का हम जज़्बात बिखेरते रह गए पत्थरों और पन्नो में ना वो पढ़ी या इरादा ही ना रहा शायद हमको पढ़ने का गुजरी है फिर आज इसी मोहल्ले से शायद वो आज बदला हुए नजारे है फिर क्यों मेरे मोहल्ले का उनकी दस्तक ही काफी था सुकून ए फकीर के लिए कुछ सबब उनको होना था बेघर अनजान रहबर  का ये सितम है या अदा है मोहब्बत जताने का उनका फिर इंतजार इंतजार रह जायेगा इंतजार भी उनके आने का थी उनकी आगमन से मन असमानो में मेरा नजरांदाज ही काफी रहा अनकही संकेतो का  हिन्दू